Ek kavita aisi  bhi...  एक कविता ऐसी भी...

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Thursday 5 January 2017

ये सब पैसा का खेला है...

चुनावी बयार में राजनेताओं की राजनीति का अहम पहलू  ये है कि -
मतदाता के सामने स्वयं को सच्चा और सभी से अच्छा दिखाना है। 
पैसा की चिंता किसे है जी, इसे तो पानी सा बहाना है।
यह कविता इसी विषय पर आधारित है----

सड़क खचाखच भरी पड़ी भीषण जनता का रेला है।
ऎसा भी का होई रहा, लागत है कौनो मेला है।

आज मुफ्त में बांट रहा कोई, सेब संतरा केला है।
आटो रिक्शा टम्पू तांगा, जीपै  बस और ठेला है।

गर्मा गर्मी बहुत बढ़ रही, यह तो बड़ा झमेला है।
गलियारों की चमक बताती, ये सब पैसा का खेला है।

मंच के ऊपर मंच सजा, उस मंच पे नेता आयेंगे।
एक नये राग में फिर से कोई, नया राग समझायेंगे।

राजनीति के दांव-पेंच,  सब खड़े-खड़े आजमायेंगे।
अपनी तारीफों के पुलिंदे , जोर जोर से गायेंगे।

भीड़ में जनता, कौन जानता, कहां से कौन आया है।
नेता जी के चमचों ने, बहला फुसला के बुलाया है।

रूपया पैसा देकर जिसने, भाड़े की भीड़ बढाया है।
खबर मिली है उसने, मंत्री जी से सेटिंग  बनाया है।

ये वोट मांगने वाला बंदा, तनिक नही शर्माता है।
नोट वोट का खेल, सियासत का पन्ना दोहराता है।

मंच के ऊपर जो होता, वो ऊंची पहुंच बनाता है।
नीचे बैठा आम आदमी, नीचे बैठा रह जाता है।

नेता के घर का कुत्ता भी, ए. सी रूम में रहता है।
वोटर का तो फर्ज यही, वह जाड़ा गर्मी सहता है।

मंत्री जी की शान में  पैसा, पानी जैसा बहता है।
उस पैसे के लिए कहीं पर, खून पसीना बहता है।

बातों से क्या पेट भरे, ये बात समझ न आती है। 
किसके घर दो वक्त की रोटी, बमुश्किल ही आती है।

किसके घर के बच्चे भी, बचपन भूल कमाते हैं। 
पेट पालने वाले, न कोई शाही भोजन खाते हैं।
पेट पालने वाले, न कोई शाही भोजन खाते हैं.......

राजनीति का सत्य तो जैसे, नीम चढ़ा करेला है।
जान रहा हर कोई कि ये सब पैसा का ही खेला है।



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